Friday, 5 September 2014
बैठ जाता हूं मिट्टी पे अक्सर... क्योंकि मुझे अपनी औकात अच्छी लगती है.. मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीक़ा, चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना ।। चाहता तो हु की ये दुनिया बदल दू पर दो वक़्त की रोटी के जुगाड़ में फुर्सत नहीं मिलती दोस्तों महँगी से महँगी घड़ी पहन कर देख ली, वक़्त फिर भी मेरे हिसाब से कभी ना चला ...! युं ही हम दिल को साफ़ रखा करते थे .. पता नही था की, 'किमत चेहरों की होती है!!' अगर खुदा नहीं हे तो उसका ज़िक्र क्यों ?? और अगर खुदा हे तो फिर फिक्र क्यों ??? "दो बातें इंसान को अपनों से दूर कर देती हैं, एक उसका 'अहम' और दूसरा उसका 'वहम'...... " पैसे से सुख कभी खरीदा नहीं जाता और दुःख का कोई खरीदार नहीं होता।" मुझे जिंदगी का इतना तजुर्बा तो नहीं, पर सुना है सादगी मे लोग जीने नहीं देते। माचिस की ज़रूरत यहाँ नहीं पड़ती... यहाँ आदमी आदमी से जलता है...!!" दुनिया के बड़े से बड़े साइंटिस्ट, ये ढूँढ रहे है की मंगल ग्रह पर जीवन है या नहीं, पर आदमी ये नहीं ढूँढ रहा कि जीवन में मंगल है या नही ज़िन्दगी में ना ज़ाने कौनसी बात "आख़री" होगी, ना ज़ाने कौनसी रात "आख़री" होगी । मिलते, जुलते, बातें करते रहो यार एक दूसरे से, ना जाने कौनसी "मुलाक़ात" आख़री होगी ....।।।। अगर जींदगी मे कुछ पाना हो तो तरीके बदलो,....ईरादे नही....|| ग़ालिब ने खूब कहा है : ऐ चाँद तू किस मजहब का है !! ईद भी तेरी और करवाचौथ भी तेरा!!
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